BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 10

नैतिकता की पूर्व मान्यतायें

(Standards of Morality)

 

प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

नैतिकता की पूर्वधारणाएँ या मान्यताएँ

किसी विज्ञान या शास्त्र का अध्ययन करने से पूर्व उसे सम्बन्धित आधारभूत बातों या तत्वों को पहले निश्चित कर लिया जाता है। इन तत्वों की सत्यता के आधार पर विभिन्न नियमों या सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है। इन आधारभूत तत्वों को ही शास्त्र की मान्यताओं या पूर्वधारणाओं के नाम से जाना जाता है। इन मान्यताओं को नैतिकता की मान्यतायें भी कहा जाता है। नैतिकता की मान्यतायें वे आधाभूत तत्व हैं जिनके आधार पर सर्वसम्मति से सत्य मानकर ही नैतिक निर्णय किए जाते हैं। यदि नैतिक मान्यतायें सत्य न मानी जाएँ तो नैतिकता या अनैतिकता का प्रश्न शून्य हो जाता है।

नैतिकता की मान्यतायें क्या हैं? इस रूप से नैतिकता की निम्नलिखित तीन मान्यतायें स्वीकार की जाती हैं -

(1) व्यक्तित्व,
(2) विवेक,
(3) आत्म-नियंत्रण या संकल्प की स्वतन्त्रता।

जर्मन नीतिशास्त्री काण्ट ने भी नैतिकता की निम्नलिखित तीन मान्यतायें मानी हैं-

(1) आत्मा की अमरता,
(2) व्यक्ति की स्वतन्त्रता,
(3) ईश्वर का अस्तित्व।

नैतिकता की मान्यता के रूप में व्यक्तित्व

नैतिक निर्णय का सम्बन्ध ऐच्छिक कर्म से होता है। ऐच्छिक कर्म के अन्तर्गत स्वेच्छापूर्वक शुभ-अशुभ के विचार के उपरान्त साध्य साधन को ध्यान में रखकर किया जाने वाला कार्य होता है। इस प्रकार का कर्म वही व्यक्ति कर सकता है जिसका समुचित ज्ञान हो। समुचित ज्ञान का होना ही व्यक्तित्व का मुख्य लक्षण है। व्यक्तित्व को नैतिकता की प्रमुख मान्यता माना जाता है।

प्रसिद्ध विद्वान कालडरवुड के अनुसार, "व्यक्तित्व ही नैतिकता का आधार है। जहाँ इच्छाओं में भेद करने की शक्ति न हो या कर्म के साधन एवं उद्देश्य के विषय में चुनाव न हो तथा स्वतन्त्र इच्छा का अभाव हो अर्थात् व्यक्तित्व न हो तथा केवल प्रकृतिजन्य कार्य किया गया हो, वहाँ नैतिकता का क्षेत्र नहीं माना जा सकता। किसी कर्म के विषय में नैतिक निर्णय देते समय कर्म को महत्वपूर्ण न मानकर कर्ता को महत्वपूर्ण माना जाता है। जिस पर अमुक कर्म की जिम्मेदारी या भार होता है। इसी के साथ नैतिक निर्णायक भी व्यक्ति ही होता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि नैतिकता के लिए व्यक्तित्व का विशेष स्थान या महत्व है तथा व्यक्तित्व के अभाव में नैतिकता अर्थपूर्ण नहीं रह जाती। इसलिए व्यक्तित्व को नैतिकता की महत्वपूर्ण मान्यता माना जाता है।

व्यक्तित्व को नैतिकता की मान्यता मानने के साथ-साथ नैतिकता को परिभाषित करना भी आवश्यक है। नैतिकता के दृष्टिकोण से आत्म चेतना तथा आत्म नियंत्रण से युक्त व्यक्ति ही नैतिकता के लिए आवश्यक मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार केवल उसी कर्म को व्यक्ति का नैतिक माना जाता है जो अपने कर्मों के लिए पूरी तरह से उत्तरदायी होता है। ऐसे व्यक्ति में आत्म नियंत्रण का गुण प्रधान होता है। वास्तव में जब व्यक्ति अपने कर्मों को अपना समझने लगता है तो कर्मों के प्रति दायित्व का बोध हो जाता है तब वह नैतिकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है। इस रूप में नैतिकता के क्षेत्र में पदार्पित करने को नैतिकता की मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है।

नैतिकता की मान्यता के रूप में विवेक

विवेक को भी नैतिकता की मान्यता माना जाता है। विवेक के बिना नैतिकता सम्भव नहीं है। मनुष्य के पास निम्नलिखित दो प्रकृति प्रदत्त शक्तियाँ हैं

(1) पाशविक प्रवृत्तियाँ या संवेदनशीलता,
(2) विवेक या विवेकशीलता।

पाशविक प्रवृत्तियाँ या संवेदनशीलता की प्रवृत्तियाँ मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीवधारियों में पायी जाती हैं। विवेक या विवेकशीलता केवल व्यक्तियों में पायी जाती है। मनुष्य अपनी विवेकशीलता से अपनी पाशविक प्रवृत्तियों या शक्तियों का नियमन करता है। विवेक शक्ति ही ऐच्छिक कर्मों का आधार है। विवेक शक्ति में विभेदीकरण किया जाता है अर्थात् व्यक्ति विवेक द्वारा शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित साध्य-साधन आदि का विचार कर ऐच्छिक कर्म करता है। विवेक के बिना ऐच्छिक कर्मों का न तो चुनाव हो सकता है और न ही ऐच्छिक कर्मों का कोई महत्व होता है। वास्तव में यदि विवेक नहीं होता तो निश्चित रूप से समस्त कर्म पाशविक प्रवृत्तियों द्वारा प्रेरित होते तथा पाशविक प्रवृत्तियों से प्रेरित कर्मों को नैतिक कर्मों के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सर्वविदित है कि पागल, अबोध एवं उन्मादी व्यक्तियों के कर्मों को नैतिक निर्णय कर्मों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इसका मुख्य कारण यही है कि उनमें विवेक का अभाव होता है। अतः स्पष्ट है कि ऐच्छिक कर्म एवं नैतिकता के विवेक का होना अति आवश्यक है। इसमें एक बात और महत्वपूर्ण है कि जहाँ एक ओर कर्मों के कर्ता के लिए विवेक का होना आवश्यक है वहीं दूसरी ओर कर्मों के विषय में किसी भी प्रकार के नैतिक निर्णय देने वाले व्यक्ति के लिए विवेक का होना आवश्यक है। यह ज्ञान सदैव विवेक पर आधारित होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नैतिक कर्म के कर्ता तथा निर्णायक दोनों व्यक्तियों के लिए विवेक प्रधान है। अतः विवेक एक महत्वपूर्ण नैतिक मान्यता है।

संकल्प की स्वतन्त्रता

व्यक्तित्व तथा विवेक की शक्ति के अतिरिक्त नैतिकता की तीसरी तथा आधारभूत मान्यता है संकल्प की स्वतन्त्रता। संकल्प की स्वतन्त्रता की स्थिति में ही कर्मों की नैतिकता सम्भव हैं। संकल्प की स्वतन्त्रता के अभाव में नैतिकता का प्रश्न ही नहीं रह जाता।

संकल्प की स्वतन्त्रता से क्या तात्पर्य है? इस प्रश्न की अनेक विद्वानों ने अपने-अपने शब्दों में व्याख्या की है।

मनुष्य में अनेक इच्छाएँ जाग्रत होती रहती हैं। ये इच्छाएँ विरोधी स्वभाव की होती हैं। इन इच्छाओं में परस्पर संघर्ष भी होता रहता है तथा व्यक्ति अपनी इच्छाओं में से किसी एक इच्छा को चुन लेता है और उसी के अनुरूप कार्य करता है। इस प्रकार से चुनाव की स्वतन्त्रता को ही संकल्प की स्वतन्त्रता के नाम से जाना जाता है। संकल्प की स्वतन्त्रता की स्थिति में ही ऐच्छिक कर्म हो सकते हैं, अतः नैतिकता के विषय में विचार करने के लिए संकल्प की स्वतन्त्रता को स्वीकार करना आवश्यक होता है। यदि यह मान लिया जाए कि व्यक्ति के कर्मों के नियंत्रण के लिए बाहरी परिस्थितियाँ उत्तरदायी होती हैं तो उसके द्वारा किए गये कर्मों के लिए उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। वास्तव में जब कर्मों का नियन्त्रण बाहरी परिस्थितियों के माध्यम से होता है तब व्यक्ति की कर्मों के प्रति इच्छा या अनिच्छा का कोई महत्व नहीं होता। इच्छा या अनिच्छा को आधार बनाये बिना किया गया कार्य एच्छिक कर्मों में शामिल नहीं किया जाता और न ही ऐसे कर्मों के विषय में नैतिक निर्णय दिया जा सकता। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि व्यक्ति के कर्म तो पूर्व निर्धारित होते हैं। समस्त कर्म नियति के खेल होते हैं। यह मत नीतिवाद के समर्थकों का है। नैतिकता की दृष्टि से नियतिवाद का कोई महत्व नहीं है। यदि हम नियतिवाद की मान्यताओं को माने तो कर्तव्य-अकर्तव्य, नैतिकता बाध्यता, पाप-पुण्य तथा उचित- अनुचित आदि नैतिक गुणों का कोई महत्व नहीं रह जाता। ये समस्त गुण तो संकल्प की स्वतन्त्रा की स्थिति में ही प्रभाव रखते हैं। यदि व्यक्ति को बहारी परिस्थितियों के वशीभूत मान लिया जाए तो उससे अपने आचरण में सुधार या कर्मों के विधिपूर्वक नियन्त्रण की आशा नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में व्यक्ति द्वारा किए गए अनुचित कार्यों के विषय में पश्चाताप भी नहीं किया जा सकता क्योंकि जिस कर्म के लिए व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं होता वह उसके लिए जिम्मेदार भी नहीं होता। ऐसे कर्म के प्रति व्यक्ति पश्चाताप भी नहीं कर सकता।

संकल्प की स्वतन्त्रता के बिना विकल्प समाप्त हो जाते हैं। विकल्पों के अभाव में "चाहिए" की सम्भावना लुप्त हो जाती है। जब हम मानते हैं कि अमुक व्यक्ति को झूठ नहीं बोलना चाहिए था या अमुक कार्य नहीं करना चाहिए था तब इस बात की पूरी सम्भावना होती है कि व्यक्ति झूठ न बोलने के लिये अर्थात् सत्य बोलने के लिए मुक्त या स्वतन्त्र होता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि नैतिकता के लिए संकल्प की स्वतन्त्रता अनिवार्य है। इसलिए प्रसिद्ध विद्वान मार्टिन्यू ने कहा है "या तो संकल्प स्वतः सत्य है या नैतिक निर्णय एक भ्रम है।' (Either freedom of well is a fact or moral judge exit a delusion ) अतः कहा जा सकता है कि संकल्प की स्वतन्त्रता के अभाव में नैतिकता का प्रश्न ही नहीं उठता। संकल्प की स्वतन्त्रता से तात्पर्य है "आत्म-नियन्त्रण अर्थात् व्यक्ति के स्वयं का नियन्त्रण विवेक तथा चरित्र के माध्यम से होता है। व्यक्ति स्वतन्त्र होता है परन्तु उसे स्वच्छन्द नहीं माना जाता है। नैतिकता की आवश्यक मान्यता भी संकल्प की स्वतन्त्रता है, संकल्प की स्वच्छन्दता नहीं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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